Thursday, January 20, 2011

तलाश

कभी यूँ भी लगता है, क्यूँ जियें
फरेब-ए-हयात-ए-मय, क्यूँ पियें
ना इल्म-ए-हस्ती, ना मर्ग-ए-वाकिफ़
फिर चाक गिरेबाँ, क्यूँ सियें

यूँ झूठ ही तो है, जो सब जाना
ना-वाकिफ़ हूँ उससे, जो है पाना
क्या जिंदगी का मकसद, क्यूँ जिंदगी का मकसद
झूठा है खुदा, झूठा पैमाना

क्या राज़-ए-खुल्द, रूह-ए-निहाँ
जाना कहाँ, हूँ मैं हैराँ
कहते हैं तूने, बनाया हमें
किसने तुझे, कुछ दे जबाँ 

दिनांक : 21/01/2011