Wednesday, February 15, 2017

ग़ज़ल - 14

हमने ये कभी जाना ही नहीं
जीना फ़क़त मर जाना ही नहीं

के हंसा उड़ भी सकता है फ़लक में
फ़क़त दरिया उसका ठिकाना नहीं

वो खुशबू जिस्म की रूह से आती थी
रूह को पहचाना ही नहीं

क्या सबब दर पे दस्तक देने से
जब उसके घर जाना ही नहीं

दोनों हाथों से लुटा दो आरज़ू
मोहब्बत में फ़क़त पाना ही नहीं

अब हम तुम्हे याद क्यों नहीं करते
इसका तो कोई बहाना ही नहीं

मैं बा-ख़फ़ा हूँ, तुम बे-वफ़ा हो
तुमने जाना ही नहीं, मैंने माना ही नहीं

बे-गिला हो चुकी हो तुम मुझसे
जो रूठता ही नहीं, उसे मनाना ही नहीं

बोहोत इख़्तिलाफ़ है हममें-तुममें
तुम शमा हो, मैं परवाना ही नहीं

एक ही दामन थामे बैठे रहे
हर शख़्स ऐसा दीवाना ही नहीं

दिल-मोहल्ले में तुम रहती हो
मेरा तो आना-जाना ही नहीं

इक ख़त का जवाब इक हर्फ़ में आया
ईमानदारी का तो ज़माना ही नहीं

बुलंदियों पर अपना भी आशियाँ होता
वगरना हमने कभी ठाना ही नहीं